. ईशा बनर्जी
नयी दिल्ली, 02 अप्रैल :भाषा: विशेषज्ञों का कहना है कि देश में 7 करोड़ शारीरिक रूप से असशक्त लोग हैं और वह अब भी स्कूलों, कालेजों तथा कार्यस्थलों पर संसाधनों तक पहुंच बनाने में अड़चनों से जूझ रहे हैं।नेशनल सेंटर फार प्रोमोशन ऑफ इंप्लायमेंट फॉर डिसएबल्ड पीपुल :एनसीपीईडीपी: के जावेद आबिदी ने कहा, ‘‘भारत में स्कूल जाने वालों में एक प्रतिशत से कम बच्चे असशक्त हैं और बुनियादी ढांचे की कमी के चलते वह अकसर पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं।’’ पिछले दो दशक में, खास तौर पर 1995 में असशक्तता अधिनियम के पारित होने के बाद ऐसे लोगों के लिए शिक्षा और रोजगार जैसे अवसर बने।बहरहाल, आबिदी कहते हैं कि असशक्त छात्रों के लिए अनेक योजनायें लागू होने के बावजूद पिछले 10 साल में राष्ट्रीय राजधानी में एक भी ऐसा स्कूल नहीं बनाया गया जिसके निर्माण में ऐसे छात्रों का ख्याल रखा गया हो।वह कहते हैं, ‘‘एक अकेला सरकारी स्कूल भी उनकी पहुंच में नहीं है। अगर कोई स्कूल उन्हें दाखिला दे भी दे तो बच्चा क्लासरूम में कैसे टिकेगा? उनके लिए स्कूल और कालेज के दरवाजे खुले हैं, लेकिन पहुंच में नहीं हैं।उसका क्या फायदा?’’ आबिदी ‘नेशनल कन्वेंशन फॉर युथ विद डिसएबिलिटीज’ के दूसरे सम्मेलन में हिस्सा ले रहे थे जिसका आयोजन हाल ही में हुआ है।सम्मेलन में आईआईटी, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय समेत देश के तकरीबन 33 संस्थानों से अपंगता वाले 50 से ज्यादा युवाओं ने हिस्सा लिया।जहां कुछ प्रतिभागियों ने महसूस किया कि कालेज या कार्यस्थल के मुकाबले स्कूलों में पहुंच ज्यादा बड़ा मुद्दा है।दूसरों का कहना था कि ‘‘प्रशिक्षण की गुणवत्ता और कार्यान्वयन’’ सबसे प्रमुख है।दृष्टिगत अपंगता वाले वकील अमरजय ने कहा, ‘‘समस्या गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण की है। अगर कोई उचित प्रशिक्षण नहीं है। आम कालेजों में पहुंच के लिए सभी साधन नहीं होते हैं।’’ एक मूक छात्रा ने संकेत भाषा से इंगित किया कि समर्थन दल उसके जैसे लोगों की मदद करने और प्रशिक्षण देने में प्रमुख भूमिका निभा सकता है।’’ आबिदी ने कहा, ‘‘नेता लोग अपंगता वाले युवकों के बारे में चर्चा करते रहते हैं। लेकिन, तथ्य बरकरार है कि उन्हें इस देश के युवकों में शामिल नहीं किया जाता।’’संपादकीय सहयोग-अतनु दास